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क्या भाजपा की तरह कांग्रेस से भी डरी हुई हैं क्षेत्रीय पार्टियां?
हिंदुस्तान की राजनीति में सैकड़ों छोटी-बड़ी पार्टियां सक्रिय हैं, लेकिन इनमें से 6 राष्ट्रीय पार्टियां और तकरीबन 57 राज्य स्तरीय पार्टियां देश की राजनीति सक्रिय हैं। लेकिन भाजपा और कांग्रेस का नेतृत्व ही देश की राजनीति पर हावी है और इन पार्टियों से आज भी छोटी यानि क्षेत्रीय पार्टियों में ये डर बैठा हुआ है कि इनमें से किसी भी पार्टी की सरकार केंद्र में रहेगी, तो क्षेत्रीय पार्टियों के अस्तित्व को खतरा रहेगा। इनमें से तमाम पार्टियां अपने इसी अस्तित्व को बचाने के लिए भाजपा के राजनीतिक गठबंधन एनडीए यानि नेशनल डेमोक्रेटिक एलायंस और कुछ कांग्रेस के नेतृत्व वाले गठबंधन यूनाइटेड प्रोग्रेसिव अलायन्स है।
नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में साल 2014 और 2019 में बड़े बहुमत के साथ भाजपा की अगुवाई वाले एनडीए की सरकार केंद्र में आने के बाद भाजपा को देशभर में मात देने के उद्देश्य से बिहार के मुख्यमंत्री और जेडीयू के मुखिया नीतीश कुमार की पहल पर 18 जुलाई 2023 को कांग्रेस के नेतृत्व में इंडिया गठबंधन बनाया गया, जिसमें शुरू में तकरीबन 40 पार्टियां शामिल हुई थीं। उस समय इंडिया गठबंधन में जितनी भी पार्टियां शामिल थीं, उन्हें किसी भी हाल में भाजपा से छुटकारा चाहिए था, लेकिन कुछ ही समय बाद जेडीयू के मुखिया नीतीश कुमार कूदकर एनडीए में चले गए और उद्धव ठाकरे की शिव सेना, शरद पवार की एनसीपी टूट गईं और उधर कांग्रेस और सपा के बीच विधानसभा चुनाव में सहमति बिगड़ने लगी।
साल 2024 के लोकसभा चुनाव में रालोद के मुखिया जयंत चौधरी भी एनडीए में चले गए। आम आदमी पार्टी ने भी पहले पंजाब के विधानसभा चुनाव में और पिछले साल हरियाणा के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस से हाथ मिलाना उचित नहीं समझा। इधर कांग्रेस को न सिर्फ हरियाणा और महाराष्ट्र में बुरी तरह हार का सामना करना पड़ा, बल्कि जम्मू-कश्मीर और झारखंड में भी उसे बहुत कुछ हासिल नहीं हुआ और इस प्रकार से इंडिया गठबंधन में फूट पड़ने लगी। ये वो मोटी-मोटी बातें हैं, जो तकरीबन सभी जानकार जानते और मानते हैं, लेकिन इंडिया गठबंधन टूटने की असली वजह कुछ और है, जो हर किसी को नहीं मालूम।
दरअसल, इंडिया गठबंधन से छिटके इन छोटे दलों को अपने अस्तित्व का जितना खतरा भाजपा से है, उतना ही खतरा कांग्रेस से भी है और इनको लेकर कहीं न कहीं कांग्रेस भी उसी ढर्रे पर चल रही है, जिस ढर्रे पर भाजपा चल रही है या ये कहें कि पहले कांग्रेस जिस ढर्रे पर छोटी पार्टियों के खिलाफ चली थी, उससे कहीं आगे बढ़कर भाजपा अब उसी ढर्रे पर चल रही है। और कांग्रेस को भी कहीं न कहीं ये लगने लगा है कि अपनी सबसे पुरानी सियासी विरासत में अगर उसने इन छोटी पार्टियों को घुसने का मौका दिया, तो न सिर्फ उसका अस्तित्व घट जाएगा, बल्कि छोटी पार्टियों की शर्तों पर उसे चलना पड़ेगा, जिसका असर अगर कभी केंद्र की सत्ता हाथ लगी तो उस पर भी पड़ेगा।
क्योंकि हर छोटी पार्टी अपनी-अपनी पकड़ वाले राज्यों में अपनी सरकार चलाना पसंद करते हैं और उनके रहते कांग्रेस को क्षेत्रीय पार्टियों के वर्चस्व वाले राज्यों में तो मजबूती मिलेगी ही नहीं, कभी केंद्र में भी मजबूती नहीं मिल सकेगी, न लोकसभा चुनाव में और न ही विधासभा चुनावों में। इसका नमूना कांग्रेस यूपी में देख भी चुकी है, जहां सपा ने उसे लोकसभा में चौथाई से भी कम सीटें देने के लिए लंबे समय तक इंतजार करवाया था।
अब दिल्ली में चुनाव आने पर इंडिया गठबंधन में दो फाड़ होने से मामला साफ हो गया और इंडिया गठबंधन में छोटी पार्टियों में से ज्यादातर ने किनारा करके ये साफ संदेश कांग्रेस को दिया है कि उन्हें उसकी जरूरत नहीं है। क्योंकि राज्यों में सक्रिय छोटी पार्टियों को ये लगता है कि जहां उनका वर्चस्व है, वहां कांग्रेस के साथ चुनाव लड़ने से कोई चमत्कार नहीं हो रहा है और बिना मतलब उन्हें सीटें कांग्रेस को देनी पड़ रही हैं।
अब यही कांग्रेस को भी लगता है कि 5-10 सीटों पर सुलह करने से तो अच्छा है कि अकेले सभी सीटों पर मैदान में उतरा जाए, जिससे न सिर्फ ये अनुभव मिलेगा कि उसकी अपनी खोई जमीन को पाने में कहां-कहां समस्याएं आ रही हैं, बल्कि उसकी सीटें बढ़ भी सकती हैं और ये विश्वास कांग्रेस को साल 2024 के लोकसभा चुनाव में 99 सीटें जीतने के बाद आया, जो कि पिछले दो चुनावों में करारी हार के बाद डगमगा गया था।