BiharPolitics
बिहार में भूरा बाल तो साफ है…..

14 नवंबर को बिहार की नई सरकार की तस्वीर संभवतः साफ हो चुकी होगी। वहां एनडीए और महागठबंधन के बीच फिलहाल तीखी टक्कर बताई जा रही है। दोनों पक्ष अपनी जीत का दावा कर रहे हैं। इस अनिश्चित माहौल में बस एक चीज़ निश्चित है- बिहार का अगला मुख्यमंत्री भी पिछड़ी जमात से ही होगा। यह भी दिलचस्प है कि एनडीए ने नीतीश कुमार को अपना मुख्यमंत्री घोषित किया हुआ है, लेकिन अब भी उसके खेमे में यह शक-शुबहा बना हुआ है कि एनडीए की जीत के बावजूद नीतीश मुख्यमंत्री हो पाएंगे या नहीं। दूसरी तरफ़ महागठबंधन ने किसी को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित नहीं किया है, लेकिन यह शीशे की तरह साफ़ है कि अगर महागठबंधन सरकार बनाने की हैसियत हासिल करता है तो तेजस्वी यादव उसके निर्विकल्प मुख्यमंत्री होंगे।
थोड़ी देर को कल्पना करें कि अगर जेडीयू-बीजेपी की जीत का समीकरण कुछ ऐसा बनता है और नीतीश की सेहत कुछ ऐसी हो जाती है कि बीजेपी उनकी जगह किसी और को मुख्यमंत्री बनाना चाहे तो भी उसके जो भी विकल्प चुनना होगा वह पिछड़ी जमात से ही चुनना होगा। अगड़ी जाति के नेताओं को फिलहाल अधिकतम इस झूठे संतोष के साथ जीना है कि वे ‘किंग मेकर’ हैं।
बहरहाल, बिहार में यह पिछ़डा अपरिहार्यता कैसे आई है? 1990 में जब लालू यादव मुख्यमंत्री बने तो एक वक्तव्य उनके नाम से चिपका दिया गया। बताया गया कि उन्होंने भूरा बाल का सफ़ाया करने की बात कही है। भूरा बाल- यानी भूमिहार, राजपूत, ब्राह्मण और लाला या कायस्थ का सफाया- यह एक तरह से बिहार में अगड़ों की राजनीति के सफ़ाये का एलान था। यह दावा किया गया कि उन्होंने हाजीपुर की किसी सभा में ये जुमला उछाला है। राजनीति को अपने कई नए और भदेस मुहावरे देने वाले लालू यादव ने हालांकि बार-बार दुहराया कि उन्होंने ऐसी कोई बात नहीं कही है, मुख्यमंत्री रहते वे ऐसी गैरज़िम्मेदारी भरी बात नहीं कह सकते थे। लालू यादव के क़रीबी साथियों में रहे शिवानंद तिवारी भी इस बात की पुष्टि करते हैं कि लालू यादव ने ऐसी कोई बात कभी कही नहीं।
वैसे यह सच है कि क़रीब दस फ़ीसदी आबादी के साथ अगड़ी जातियां आज़ादी के बाद अरसे तक बिहार की राजनीति पर क़ाबिज़ रहीं। बेशक, पिछड़े तबकों से भी नेता और मुख्यमंत्री आए, लेकिन अनुपात में उनकी संख्या बहुत कम रही। साठ के दशक में यूपी बिहार में लोहिया-जेपी के प्रभाव में समाजवादी राजनीति के उभार के बीच कई बड़े पिछड़े नेता उभरे, जिनमें कर्पूरी ठाकुर और बीपी मंडल प्रमुख रहे। 1968 में बीपी मंडल ने बिहार की कमान संभाली, 1977 में जनता पार्टी की जीत के बाद कर्पुरी ठाकुर मुख्यमंत्री बने। इनके अलावा भोला पासवान शास्त्री और दरोगा राय के नाम तत्काल याद आते हैं जो दलित-पिछड़ी जमातों से मुख्यमंत्री बन सके। बीपी मंडल बाद में उस मंडल आयोग की रिपोर्ट के लिए चर्चित हुए जिसमें उन्होंने पिछड़ी जातियों के लिए शिक्षा और नौकरियों में आरक्षण की सिफ़ारिश की। यही वो रिपोर्ट थी जिसका इस्तेमाल 7 अगस्त 1990 को वीपी सिंह ने देवीलाल के राजनीतिक वार को काटने के लिए ब्रह्मास्त्र की तरह किया और देश और बिहार की राजनीति हमेशा-हमेशा के लिए बदल गई। मंडल की इस नई लहर पर सवार होकर बिहार में जनता दल ने चुनाव जीता और फिर मुख्यमंत्री चुनने की क़वायद शुरू हुई। इसी क़वायद में लालू यादव चुन कर आए और फिर बिहार में शुरू हुआ सामाजिक न्याय की राजनीति का नया चक्र। भूरा बाल इसी चक्र के बीच निकला था- नारे की तरह, मुहावरे की तरह या किसी पत्रकार की शरारत की तरह- ये बताना मुश्किल है, क्योंकि लालू यादव हमेशा इस बात से इनकार करते रहे कि उन्होंने कभी भूरा बाल ख़त्म करने जैसी कोई बात कही है।
वैसे यह सच है कि लालू यादव उस दौर में राजनीति को जैसे एक नई अनगढ़ भाषा दे रहे थे। उन्हें भदेस कहा गया, उनका मज़ाक उड़ाने की कोशिश हुई, मसखरा तक बताया गया,लेकिन लालू यादव ने राजनीति को बिल्कुल जनता की ज़ुबान तक उतार लाने का काम किया। ये एक नया बिहार था जिसके आने का वह एलान कर रहे थे- पाटलिपुत्रा इज़ कमिंग। उनका यह जुमला बेहद चर्चित रहा कि जब तक जंगल में भालू और समोसे में आलू रहेगा, तब तक बिहार में लालू रहेगा। उन्होंने ये दावा भी किया कि अगले बीस साल तक वे मुख्यमंत्री बने रहेंगे- इस जुमले के साथ कि राजा हमेशा रानी के पेट से पैदा नहीं होगा।
लेकिन लालू यादव के भीतर यह आत्मविश्वास कहां से आया था? उस सामाजिक उद्वेलन से जो सत्तर और अस्सी के दशकों में बिहार की ज़मीन पर दिख रहा था। 1977 के बेलछी कांड को याद किया जा सकता है जिसमें कई दलितों की हत्या कर दी गई थी और फिर जिनके परिवारों से मिलने के लिए तब विपक्ष में बैठी इंदिरा गांधी हाथी में बैठ कर गांव पहुंची थीं। अगले बीस साल तक बिहार में जातिगत नरसंहार होते रहे। पारसबीघा, दोहिया, जहानाबाद, पीपरा, दलेलचक बघौरा, दनवार बिहटा, बथानी टोला, लक्ष्मणपुर बाथे बिहार में जगहों और गांवों के नाम नहीं हैं, उस रक्तरंजित इतिहास की स्मृति हैं जिसमें तरह-तरह की सेनाएं जाति पूछ कर जान ले रही थीं। इन सबके बीच 1990 में भागलपुर के दंगे हुए जिनमें कम से कम 1000 लोगों के मारे जाने का अंदेशा लगाया जाता है। मंडल आयोग के साथ पैदा हुए राजनीतिक तूफ़ान ने रही-सही कसर पूरी कर दी।
इस माहौल में जब लालू यादव मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने पिछड़ा स्वाभिमान को जगाया और अल्पसंख्यकों को भरोसा दिलाया। उन्होंने जनता दल को सामाजिक न्याय की अलमबरदार पार्टी के तौर पर बिहार में ख़ासी मज़बूती दी। सामाजिक न्याय की अवधारणा के तहत कई काम किए। चरवाहा विद्यालय जैसी शुरुआत की, जिसका मज़ाक भी बना। लेकिन पिछड़ों के भीतर इस दौर में एक नया और आक्रामक आत्मविश्वास आया। उन्हीं दिनों सोमनाथ से अयोध्या तक की रथयात्रा के लिए निकले लालकृष्ण आडवाणी को गिरफ़्तार कर उन्होंने धर्मनिरपेक्ष राजनीति में अपनी ख़ास जगह बनाई। बेशक आने वाले वर्षों में बिहार में कानून व्यवस्था के हालात, अपहरण उद्योग जैसे इल्ज़ाम, चारा घोटाले और अंततः परिवारवाद ने लालू यादव की चमक काफ़ी कम कर दी, लेकिन सामाजिक न्याय की राजनीति का जो चक्र उन्होंने चला दिया था, उसे वापस लौटाना अब तक संभव नहीं हो पाया है।
भूरा बाल साफ़ करो के जुमले को इसी आलोक में देखने की ज़रूरत है। बिहार में वाकई बीते तीन दशकों में भूरा बाल साफ़ ही है। लालू यादव के मुख्यमंत्री बनने से पहले के दस साल में बिहार ने पांच अगड़े मुख्यमंत्री देखे। जगन्नाथ मिश्र, सत्येंद्र नारायण सिन्हा, भागवत झा आज़ाद, बिंदेश्वरी दुबे और चंद्रशेखर सिंह- पांच-पांच अगड़े मुख्यमंत्री इन दस सालों के दौरान बिहार पर राज करते रहे।
लेकिन नब्बे के बाद की राजनीति में यह भूरा बाल कहीं दिखाई नहीं पड़ता। जिस अगड़ी जमात ने दस साल में पांच अगड़े मुख्यमंत्री बनाए, वो पिछले 35 साल से पिछड़े नेतृत्व के मातहत काम करने को मजबूर है। लालू यादव के बाद राबड़ी देवी, नीतीश कुमार और जीतनराम मांझी बिहार के मुख्यमंत्री बन चुके हैं। अब भी वहां जो टकराव है, वह पिछड़े नेतृत्व के बीच कहीं ज़्यादा है। यह सच है कि अब भी वहां तमाम दलों में अगड़ी जातियों के नेताओं की ठीक-ठाक संख्या और हैसियत है। प्रशांत किशोर तो तीसरी शक्ति बनने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन ज़्यादा बड़ी सच्चाई यही है कि बिहार में फिलहाल नेतृत्व करने की हैसियत में नहीं है। यह भूरा बाल की वह सफ़ाई है जो लालू यादव ने बिना कुछ कहे कर डाली। क्योंकि अगर लालू यादव सत्तासीन नहीं हुए होते तो नीतीश का रास्ता भी नहीं बनता और जीतनराम मांझी के लिए भी गली नहीं खुलती। 2025 बिहार विधानसभा चुनावों के बारे में अगर कुछ निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है तो यही कि इस बार भी इन चुनावों से कोई भूरा बाल मुख्यमंत्री नहीं निकलने वाला है।


